रविवार, अगस्त 21, 2016

लखनऊ विश्वविद्यालय संस्मरण पार्ट 3

कथा के बीच अंतर्कथा


हाँ तो अब विशेष रूप से जीन्स पर बात करते हैं. पिछली बार हमने अपना निजी विचार व्यक्त करते हुए कहा कि जीन्स लड़कों के बजाय लड़कियों पर ही ज्यादा फबती है. मेरा मकसद पुरुष मित्रों को जीन्स पहनने से हतोत्साहित करना नहीं था लेकिन जीन्स के हिमायती मित्रों ने ही बहस छेड़ दी. हमारे देश में कपड़ों का रिश्ता जाति, त्योहार से लेकर इलाका और मौसम सबसे रहा है. ऐसे में जीन्स एक ऐसा कपड़ा है जो इन सब सीमाओं या खांचे को पार करता हुआ हर तबके के पहनावे के रूप में कायम हो जाता है. जीन्स सिर्फ एक आधुनिक कपड़ा नहीं बल्कि असमानता को विशेष रूप से उभारने वाले इस आधुनिक दौर में बराबरी का एक ऐसा रूपक है जो अमीर से लेकर ग़रीब सबके बदन पर है. जीन्स एक ऐसा कपड़ा या परिधान है जिसका कोई जेंडर यानी लिंग नहीं है, यह उभयलिंगी है. इसलिए मैं तो कहता हूँ कि सभी लोग जीन्स पहने, बेटे बेटियां, मम्मी पापा, दादा दादी, नाना नानी, साले सालियाँ, सास ससुर, आजू बाजू, पास पड़ोस में रहने वाले, रहने वालियां, काम झाड़ू पोंछा करने वाली बाइयां, नौकर नौकरानियां, रिक्शे ऑटो वाले सभी जीन्स पहने और खूब पहने. मेरा तो ख़याल है कि प्रधानमंत्री जी को "स्वच्छ भारत अभियान" के साथ साथ "जीन्स भारत अभियान" भी चालू कर देना चाहिए जिससे अपने देश में सभी लोग स्मार्ट और फैशनेबुल दिखें और अमेरिका एवं यूरोप के देशों को इस मामले में कड़ी टक्कर दे सकें. सरकार गरीबों को जीन्स खरीदने के लिए सब्सिडी देने पर भी विचार करे.

जीन्स को लेकर हमेशा से तकरार होती रही है. हमें याद है कि विश्वविद्यालय के हॉस्टल में रहने वाले कुछ लड़के जीन्स अपने मां बाप से छिप कर पहनते थे. नब्बे के दशक में रूढ़िवादी परिवारों के छात्रों के माता पिता कहा करते थे कि जीन्स मत पहनना, लोफर पहनते हैं. शायद जिप्सियों पर बनी हरे रामा हरे कृष्णा जैसी फिल्मों ने जीन्स की छवि ऐसे लोगों में बिगाड़ दी होगी. लड़कियों को भी जीन्स पहनने पर ऐसी टीका टिप्पणी सुननी पड़ी है. यह एक छिटपुट विरोध भर था. हमारे देश के एक तबके में जीन्स बागी प्रवृत्ति वाले नौजवानों से कम, बिगड़ैल प्रवृत्ति के युवाओं से जोड़ कर देखा गया है. बाद में यह आसानी से स्वीकृत भी होता गया. आज के सभी हीरो जीन्स ही पहनते हैं. अमिताभ, जीतेंद्र, मिथुन के दौर में पतलून का चलन था. इसलिए हर दर्जी उनकी पतलून की कापी करता था. पतलून की जेब से लेकर मोहरी तक फैशन बन जाया करती थी. बेल बाटम्स से लेकर पतली मोहरी का चलन हो जाता था. जीन्स में कापी करने के लिए कुछ नहीं है. आप सलाम नमस्ते या काकटेल देखने के बाद चाहें तो जीन्स का कोई भी ब्रांड खरीद ले. इतनी भयंकर समानता किसी और प्रकार के कपड़े में नहीं है. इसीलिए जीन्स का ब्रांड महत्वपूर्ण होता है. जीन्स ब्रांड के नाम से ही अलग दिखती है.

जीन्स के कपड़े की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह किसी भी प्रकार के अंतर को समाप्त कर देती है. हमारे हिन्दुस्तान में जीन्स का आगमन यहां के उन कुलीनों के ज़रिये होता है जो महानगरों के खास इलाकों तक ही सिमटे रहे. अमेरिका में जीन्स मज़दूरों से मालिकों और युवाओं तक पहुंची. हिन्दुस्तान में जीन्स मालिकों से मज़दूरों तक पहुंची. इसमें दिल्ली के मोहनसिंह प्लेस और करोलबाग का बड़ा योगदान रहा है. कनाट प्लेस स्थित मोहनसिंह प्लेस सस्ती जीन्स का खदान बन गया. वहीं से उन लोगों ने जीन्स पहनने का तज़ुर्बा किया जो ब्रांड वाली महंगी जीन्स नहीं खरीद सकते थे. बदलते शहर, काम की प्रकृति के कारण हिन्दुस्तान भर से आए प्रवासी छात्रों और मज़दूरों को जीन्स की शरण लेनी पड़ी. जीन्स उनके आधुनिक होने की पहचान बन गई. इन मज़दूरों के साथ गांव गांव में जीन्स पहुंचा है. सस्ती और टिकाऊ होने के कारण मर्द ही इन्हें अपने इलाके में लेकर गए हैं. गांवों में लड़कियों तक जीन्स मर्दों के ज़रिये पहुंचा है. इसी चस्के ने जीन्स का देसी बाज़ार तैयार किया और नकली ब्रांड वाले जीन्स मेले से लेकर ठेले तक पर बिकने लगी. इस कपड़े ने गांवों की सीमा के भीतर लड़के और लड़कियों के बीच पहनावे के अंतर को समाप्त कर दिया है.

इसलिए मैं अब भी कहता हूँ कि सभी लोग जीन्स पहने और खूब पहने लेकिन निजी विचार अब भी वही...........कि जीन्स लड़कों के बजाय लड़कियों पर ही ज्यादा फबती है.
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