रविवार, अगस्त 28, 2016

लखनऊ विश्वविद्यालय संस्मरण-पार्ट 4

विश्वविद्यालय के बीरबल साहनी हॉस्टल में लगभग सभी फैकल्टीज यानी आर्ट्स, साइंस, कॉमर्स, मैनेजमेंट के छात्र रहते थे जिसमे अंडरग्रैजुएट, पोस्ट ग्रैजुएट, एमबीए और रिसर्च आदि सभी के छात्र शामिल थे. हॉस्टल में कुल 96 कमरे थे जिसमे से ग्राउंड फ्लोर पर एक कमरा प्रोवोस्ट के ऑफिस के रूप में काम करता था. इस प्रकार कुल 95 छात्र रहते थे. हर फ्लोर पर 32 कमरे थे. हॉस्टल में फर्स्ट और सेकंड फ्लोर पर जाने के लिए बीच में सीढ़ियाँ बनी थीं. हर फ्लोर पर आमने सामने 8-8 कमरों के ब्लाक बने थे. मेस ग्राउंड फ्लोर पर तथा कॉमन हाल सेकंड फ्लोर पर था. हर फ्लोर पर 24 घंटे एक चपरासी जो कि छात्रों के कमरों की सफाई से लेकर उनकी जरूरत का हर सामान बाज़ार से लाने के लिए रहता था. कुल मिलाकर बहुत ही बढ़िया इंतज़ाम. हर साल नए छात्रों की रैगिंग हॉस्टल के सीनियर छात्र जरूर करते थे परन्तु उसकी भी एक सीमा थी जैसे सीनियर्स को सुबह गुड मोर्निंग बोलने से लेकर कैंपस में कहीं पर भी मिलने पर दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करना अनिवार्य था. रैगिंग के दौरान जूनियर्स को उस समय के बॉलीवुड फिल्मों के हिट गानों को सुनाना और कभी कभी उस पर डांस भी करना होता था. कभी कभी जूनियर्स को उनके साथ पढ़ने वाली कम से कम पांच लड़कियों के नाम भी बताना होता था. लेकिन यह सब शुरुआत के एक आध महीने ही चलता था फिर सब आपस में दोस्त हो जाते थे. आजकल का तो पता नहीं पर उस समय हॉस्टल में हीटर रखने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था और लगभग सभी अपने कमरों में हीटर जरूर रखते थे जिससे दो काम हो जाते थे एक तो जब चाहते कमरे में ही चाय बन जाती और दूसरा सर्दियों के मौसम में तापने के भी काम आता था. अधिकाँश छात्र देर रात तक जग कर अपनी पढ़ाई करते थे जबकि कुछ जल्दी सो जाते और सुबह 3-4 बजे जग जाते थे तथा पढ़ाई करने के बाद अपनी क्लासेज अटेंड करने कैंपस जाते थे जिसमे साइंस के छात्र ज्यादा होते क्योंकि साइंस की ही क्लासेज सुबह सुबह ही लगती थी. ज्यादातर आर्ट्स के छात्र सुबह देर से सोकर उठते क्योंकि या तो उनकी क्लासेज सुबह 10 बजे के बाद लगती या वे रेगुलर क्लासेज अटेंड करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते थे.

उस समय मेस में केवल दोपहर और रात के खाने का ही इंतजाम रहता था. नाश्ते का इंतजाम खुद करना होता था. बन/ब्रेड मक्खन, खस्ते, आमलेट, ब्रेड पकौड़े या फिर मैग्गी लोगों का पसंदीदा नाश्ता हुआ करता था. यह भी लोग या तो टहलते हुए पास में बाबूगंज मोड़ पर जा कर कर लेते या चपरासी से मंगवा लेते. हॉस्टल में बाथरूम सिंगर्स कि भरमार थी और सुबह उठते ही गैलरी में कई छात्र नई पुरानी फिल्मों के गाने गाते गुनगुनाते मिल जाते. "मेरे महबूब क़यामत होगी", "कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है", "तेरे चेहरे से नज़र नहीं हटती", "नजराना भेजा किसी ने प्यार का"....... से लेकर ताज़ा रिलीज़ फिल्मों क़यामत से क़यामत के "पापा कहते हैं कि बेटा हमारा बड़ा नाम करेगा" और फूल और कांटे के "मैंने प्यार तुम्ही से किया है" आदि गाने लोग खूब गाते गुनगुनाते थे. नई रिलीज़ फिल्म देखने के बाद कुछ छात्र हफ़्तों तक उसी फिल्म के गाने गाते रहते थे जिससे लोगों को पता चल जाता कि उसने यह फिल्म पहले ही देख ली है. सुबह तैयार होकर छात्र अपनी क्लासेज अटेंड करने के लिए कैंपस का रुख करते थे. आस पास के कई हॉस्टल से कैंपस में जाने के लिए दो तीन रास्ते हुआ करते थे परन्तु लगभग 95 प्रतिशत छात्रों का पसंदीदा रास्ता पीजी ब्लाक के पास वाले गेट से होकर था. इसका भी कारण कोई विशेष नहीं था सिवाय इसके कि पीजी ब्लाक जिसमे इंग्लिश और इकोनॉमिक्स की क्लासेज लगती थी वहां पर कैंपस की सबसे फैशनेबुल और मॉड लड़कियां पढ़ती थीं. अधिकाँश लड़कियां शहर के बड़े बिज़नेसमैन घरानों या बड़े सरकारी अधिकारियों कि बेटियाँ थीं जो कि महंगे ब्रांडेड कपड़ों मे इम्पोर्टेड परफ्यूम्स की खुशबू बिखेरती हुई दो या तीन के ग्रुप्स में दिखती थीं और उनके कंधे पर छोटे पर्स के अलावा हाथों में शहर के मॉडर्न सिल्क हाउस, केसंस जैसे नामचीन स्टोर का पोलीबैग होता था जिसमे शायद वे पतले नोटबुक्स वगैरह रखती होंगी. ऐसा लगता था गोया वे कैंपस में पढ़ने के बजाय शॉपिंग करने आयी हों. ये लड़कियां कभी भूल से भी हिंदी नहीं बोलती थीं या बोलना पसंद नहीं करती थीं या उन्हें हिंदी बहुत ही कम आती थी. ये लड़कियां अपने ग्रुप के अलावा किसी अन्य लड़के या लड़कियों से बात भी नहीं करती थीं और कभी कभार यदि इनके साथ स्कूल कॉलेज में साथ पढ़ा कोई लड़का या लड़की कैंपस में दिख जाता था तो हाय हेल्लो तक ही सीमित रहती थीं. यही कारण था कि हॉस्टल के ज्यादातर लड़के पीजी ब्लाक का रास्ता कैंपस में अंदर जाने के लिए चुनते थे जिससे कि वे कैंपस के इस कलरफुल नज़ारे का आनंद ले सकें. जिन छात्रों का सब्जेक्ट ही इंग्लिश या इकोनॉमिक्स था उनकी तो पौ बारह थी. इस प्रकार का दृश्य पीजी ब्लाक और थोड़ा बहुत मॉडर्न हिस्ट्री डिपार्टमेंट के अलावा पूरे कैंपस में कहीं नहीं दिखता था..................जारी.......अगली क़िस्त सिर्फ ऐसी लड़कियों पर जो ब्यूटी और टैलेंट का परफेक्ट कॉम्बिनेशन थीं और जिनका डंका पूरे कैंपस में बजता था......











रविवार, अगस्त 21, 2016

लखनऊ विश्वविद्यालय संस्मरण पार्ट 3

कथा के बीच अंतर्कथा


हाँ तो अब विशेष रूप से जीन्स पर बात करते हैं. पिछली बार हमने अपना निजी विचार व्यक्त करते हुए कहा कि जीन्स लड़कों के बजाय लड़कियों पर ही ज्यादा फबती है. मेरा मकसद पुरुष मित्रों को जीन्स पहनने से हतोत्साहित करना नहीं था लेकिन जीन्स के हिमायती मित्रों ने ही बहस छेड़ दी. हमारे देश में कपड़ों का रिश्ता जाति, त्योहार से लेकर इलाका और मौसम सबसे रहा है. ऐसे में जीन्स एक ऐसा कपड़ा है जो इन सब सीमाओं या खांचे को पार करता हुआ हर तबके के पहनावे के रूप में कायम हो जाता है. जीन्स सिर्फ एक आधुनिक कपड़ा नहीं बल्कि असमानता को विशेष रूप से उभारने वाले इस आधुनिक दौर में बराबरी का एक ऐसा रूपक है जो अमीर से लेकर ग़रीब सबके बदन पर है. जीन्स एक ऐसा कपड़ा या परिधान है जिसका कोई जेंडर यानी लिंग नहीं है, यह उभयलिंगी है. इसलिए मैं तो कहता हूँ कि सभी लोग जीन्स पहने, बेटे बेटियां, मम्मी पापा, दादा दादी, नाना नानी, साले सालियाँ, सास ससुर, आजू बाजू, पास पड़ोस में रहने वाले, रहने वालियां, काम झाड़ू पोंछा करने वाली बाइयां, नौकर नौकरानियां, रिक्शे ऑटो वाले सभी जीन्स पहने और खूब पहने. मेरा तो ख़याल है कि प्रधानमंत्री जी को "स्वच्छ भारत अभियान" के साथ साथ "जीन्स भारत अभियान" भी चालू कर देना चाहिए जिससे अपने देश में सभी लोग स्मार्ट और फैशनेबुल दिखें और अमेरिका एवं यूरोप के देशों को इस मामले में कड़ी टक्कर दे सकें. सरकार गरीबों को जीन्स खरीदने के लिए सब्सिडी देने पर भी विचार करे.

जीन्स को लेकर हमेशा से तकरार होती रही है. हमें याद है कि विश्वविद्यालय के हॉस्टल में रहने वाले कुछ लड़के जीन्स अपने मां बाप से छिप कर पहनते थे. नब्बे के दशक में रूढ़िवादी परिवारों के छात्रों के माता पिता कहा करते थे कि जीन्स मत पहनना, लोफर पहनते हैं. शायद जिप्सियों पर बनी हरे रामा हरे कृष्णा जैसी फिल्मों ने जीन्स की छवि ऐसे लोगों में बिगाड़ दी होगी. लड़कियों को भी जीन्स पहनने पर ऐसी टीका टिप्पणी सुननी पड़ी है. यह एक छिटपुट विरोध भर था. हमारे देश के एक तबके में जीन्स बागी प्रवृत्ति वाले नौजवानों से कम, बिगड़ैल प्रवृत्ति के युवाओं से जोड़ कर देखा गया है. बाद में यह आसानी से स्वीकृत भी होता गया. आज के सभी हीरो जीन्स ही पहनते हैं. अमिताभ, जीतेंद्र, मिथुन के दौर में पतलून का चलन था. इसलिए हर दर्जी उनकी पतलून की कापी करता था. पतलून की जेब से लेकर मोहरी तक फैशन बन जाया करती थी. बेल बाटम्स से लेकर पतली मोहरी का चलन हो जाता था. जीन्स में कापी करने के लिए कुछ नहीं है. आप सलाम नमस्ते या काकटेल देखने के बाद चाहें तो जीन्स का कोई भी ब्रांड खरीद ले. इतनी भयंकर समानता किसी और प्रकार के कपड़े में नहीं है. इसीलिए जीन्स का ब्रांड महत्वपूर्ण होता है. जीन्स ब्रांड के नाम से ही अलग दिखती है.

जीन्स के कपड़े की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह किसी भी प्रकार के अंतर को समाप्त कर देती है. हमारे हिन्दुस्तान में जीन्स का आगमन यहां के उन कुलीनों के ज़रिये होता है जो महानगरों के खास इलाकों तक ही सिमटे रहे. अमेरिका में जीन्स मज़दूरों से मालिकों और युवाओं तक पहुंची. हिन्दुस्तान में जीन्स मालिकों से मज़दूरों तक पहुंची. इसमें दिल्ली के मोहनसिंह प्लेस और करोलबाग का बड़ा योगदान रहा है. कनाट प्लेस स्थित मोहनसिंह प्लेस सस्ती जीन्स का खदान बन गया. वहीं से उन लोगों ने जीन्स पहनने का तज़ुर्बा किया जो ब्रांड वाली महंगी जीन्स नहीं खरीद सकते थे. बदलते शहर, काम की प्रकृति के कारण हिन्दुस्तान भर से आए प्रवासी छात्रों और मज़दूरों को जीन्स की शरण लेनी पड़ी. जीन्स उनके आधुनिक होने की पहचान बन गई. इन मज़दूरों के साथ गांव गांव में जीन्स पहुंचा है. सस्ती और टिकाऊ होने के कारण मर्द ही इन्हें अपने इलाके में लेकर गए हैं. गांवों में लड़कियों तक जीन्स मर्दों के ज़रिये पहुंचा है. इसी चस्के ने जीन्स का देसी बाज़ार तैयार किया और नकली ब्रांड वाले जीन्स मेले से लेकर ठेले तक पर बिकने लगी. इस कपड़े ने गांवों की सीमा के भीतर लड़के और लड़कियों के बीच पहनावे के अंतर को समाप्त कर दिया है.

इसलिए मैं अब भी कहता हूँ कि सभी लोग जीन्स पहने और खूब पहने लेकिन निजी विचार अब भी वही...........कि जीन्स लड़कों के बजाय लड़कियों पर ही ज्यादा फबती है.
......................... जारी……………………… Check out rakeshtew.blogspot.in also.

शनिवार, अगस्त 20, 2016

लखनऊ विश्वविद्यालय संस्मरण पार्ट 2



1982-83 मे लखनऊ विश्वविद्यालय में बी. ए. प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया तो अपनी पसंद के ही अनुसार एडमिशन मिला मैथ्स, सोशल वर्क और साइकोलॉजी सब्जेक्ट्स में तथा साल भर की कुल फीस भरनी पड़ी रु 163 मात्र. एडमिशन मिलने के बाद हॉस्टल के लिए भी फॉर्म भर दिया तब आर्ट्स विषय के अंडरग्रेजुएट छात्रों के लिए मात्र हबीबुल्लाह छात्रावास ही था जो की डबल सीटेड था. इसके अलावा बीरबल साहनी तथा गोल्डन जुबिली ऐसे हॉस्टल थे जिनमे रिसर्च स्कॉलर्स के अलावा कुछ मेधावी छात्रों को भी रूम अलॉट किया जाता था चाहे वे किसी भी क्लास के क्यों न हो. ये दोनो हॉस्टल नए बने थे और सिंगल सीटेड भी थे तथा मेन कैंपस से भी नज़दीक थे. विश्वविद्यालय में प्रवेश के पहले ही वर्ष सिंगल सीटेड हॉस्टल पाना किसी गौरव से कम नहीं था. मैंने  बीरबल साहनी हॉस्टल में रूम अलॉटमेंट के लिए एप्लीकेशन डाल दी तभी अचानक रजिस्ट्रार ऑफिस के पास हमारे स्कूल के सीनियर छात्र भाई सुरेश बहादुर जी मिल गए और बताया की वे बीरबल साहनी हॉस्टल में ही रहते हैं और उनका एम.ए. इकोनॉमिक्स का फाइनल ईयर है तथा उनके हॉस्टल में एक छात्र नौकरी पा जाने के कारण अपना रूम एक दो दिन में खाली कर देगा जिसे वे प्रोवोस्ट से कहकर मुझे अलॉट करवा देंगे. हालाँकि मैं बहुत मेधावी छात्र तो नहीं था परंतु हाई स्कूल और इंटरमीडिएट में फर्स्ट डिवीज़न होने अच्छे  नंबर होने के कारण मेधावी छात्रों में मैं भी शामिल हो गया और बीरबल साहनी हॉस्टल में एक सिंगल सीटेड रूम पाने में सफल हो गया. बीरबल साहनी हॉस्टल के मेस में उस समय एक वक्त का खाना मात्र दो रुपये में मिलता था जिसमे अनगिनत चपाती के साथ बढ़िया दाल चावल और सब्जी भी. हफ्ते में दो बार यानी बुधवार शाम और रविवार दोपहर स्पेशल पूरी कचौरी सब्जी और खीर या कस्टर्ड, फ्रूट क्रीम भी. क्या दिन थे आज सपना लगता है. यह इकलौता हॉस्टल डालीगंज और बाबूगंज से कैंपस आने वाली सड़क के बिलकुल किनारे पड़ता था. संयोग से मेरे रूम की खिड़की भी सड़क की तरफ ही खुलती थी जिससे सड़क पर आने जाने वाले बहुत ही नज़दीक व साफ़ दिखाई देते थे. इस सड़क से डालीगंज और बाबूगंज से कैंपस आने जाने वाली बहुत सारी लड़कियां रोज़ सुबह से सायं तक गुज़रती थीं. डालीगंज और बाबूगंज इलाके से आने वाली लड़कियां अधिकतर सामान्य निम्न मध्य और मध्य वर्ग की ही होती थी और उनका पहनावा भी उसी तरह होता था. अब लड़कों के हॉस्टल के सामने से लड़कियां गुज़रें और लड़के कोई कमेन्ट्स ना करें ऐसा भला कैसे हो सकता था. फिर क्या था, ऐ नीली दुपट्टे वाली तुम पर लाल दुपट्टा जमेगा या वाह क्या चाल है, क्या नाम है या आज बिजली गिरकर ही रहेगी जैसे कमेन्ट्स पास होते थे. हाँ लड़के ये कमेन्ट्स केवल मनोरंजन के लिए अपने कमरे की खिड़कियों से ही पास करते थे और इसका ख्याल रखते थे की उनकी पहचान लड़कियों के सामने कभी उजागर ना हो और लड़कियां भी इन सब की आदी हो चुकी थीं बिना किसी प्रतिक्रया के सीधे कैंपस की तरफ बढ़ जाती थीं. हाँ उस ज़माने में जीन्स पहने हुए यदि कोई लड़की हॉस्टल के सामने से गुजर गयी तो समझो उसकी शामत. शामत बोले तो बहुत बहुत कमेन्ट्स क्योंकि उस ज़माने में जीन्स पहनने का फैशन शुरू हुए बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ था और जीन्स पहनने वाली लड़कियों की इमेज एक मॉड एवं बिंदास की मानी जाती थी. वैसे मैं जीन्स पहनने का विरोधी नहीं हूँ परंतु मैंने कभी जीन्स नहीं पहना और न ही कभी पहनने का विचार है, मुझे तो ट्रॉउज़र्स ही पसंद है. हॉस्टल में रहने के दौरान मैंने देखा कई लड़के जीन्स पहनते हैं पर जब देखा कि हॉस्टल के सर्वेन्ट्स, कुछ रिक्शेवाले और आस पास के चाय की दुकानों और ढाबों के छोटू और पप्पू भी जीन्स पहनकर घूम रहे हैं तो जीन्स पहनने का विचार सदा के लिए त्याग दिया. अब मेरा निजी विचार जिससे हो सकता है कि जीन्स पहनने वाले कुछ हमारे मित्र नाराज़ हो सकते हैं कि जीन्स लड़कों पर सूट नहीं करती बल्कि हमारे ख्याल से यह लड़कियों पर ही ज्यादा फबती है क्योंकि कुदरत ने उनको ऐसी शारीरिक संरचना से नवाजा है. वे जीन्स पहनकर चुस्त और स्मार्ट लगती हैं. अब हमें यह नहीं पता कि जीन्स पहनने वाले लड़कों को लड़कियां कैसे और किन नज़रों से देखती हैं.

बहरहाल अगली क़िस्त सिर्फ जीन्स पर……….. जारी………………………

गुरुवार, अगस्त 18, 2016

लखनऊ विश्वविद्यालय संस्मरण !!! 



अभी चार पांच रोज़ पहले ही विश्वविद्यालय में साथ पढ़ चुके सहपाठी मित्रों से साक्षात मुलाकात हुई और पिछले वर्षों के दौरान बहुत से सहपाठी मित्र अब तक फेसबुक और व्हाटस ऐप्प के विभिन्न ग्रुप्स के माध्यम जुड़ चुके हैं. स्कूल कॉलेज के अनुशासन की बंदिशों के बाद जब विश्वविद्यालय में  पढ़ाई के लिए एडमिशन लिया तो मन में बहुत कुछ आज़ादी मिलने सा ख्याल, तो स्कूल कॉलेज यूनिफार्म का झंझट और ही समय पर स्कूल कॉलेज पहुँचने की कोई चिंता और उस पर सोने पे सुहागा ये कि हॉस्टल में रहना यानी जल्दी या देर से सोने जागने, समय बेसमय अपनी पसंद का कुछ भी खाना खाने, कैसे भी कपड़े पहन कर बाहर घूमने आदि पर पेरेंट्स की पाबंदी से मुक्ति, मतलब संपूर्ण आज़ादी. लेकिन इसके साथ ही ये भी चिंता कि विश्वविद्यालय की पढाई पूरी करते ही इतने बड़े हुजूम के बीच अपने अच्छे भविष्य के लिए एक बढ़िया सी नौकरी प्राप्त कर अपने ऊपर से बेरोजगार होने का ठप्पा मिटाकर आर्थिक आज़ादी हासिल करना. लेकिन जो भी हो 1982 से 1989 तक लगभग सात साल लखनऊ विश्वविद्यालय में पढाई करना और वो भी हॉस्टल में रहकर मेरे जीवन के स्वर्णिम काल से कम नहीं. इस दौरान कई विदेशी छात्रों के अलावा देश के अन्य प्रान्तों, प्रदेश के विभिन्न जिलों से पढ़ाई करने आये लोगों से मुलाकात हुई और उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला. बहुत सारे मित्र बने जिनमे से अब कई बहुत सालों बाद सोशल मीडिया के माध्यम से फिर जुड़ गए. ईश्वर महान है !!!!!!

किसी के जीवन के स्वर्णिम काल की बातें कभी जेहन से जाती नहीं और भूलती बिसरती नहीं. विश्वविद्यालय और हॉस्टल से जुड़ी ऐसी ही बहुत सारी बातें और खट्टी मीठी यादें  जो मेरे जेहन में अब तक है उसे आप सभी तक पहुंचाकर आपको लगभग २८-३४  साल पीछे ले चलता हूँ. पढ़ेंगे तो बहुत ही आनंद आएगा. इसे आप संस्मरण कह सकते हैं जिसमे थोड़ा थोड़ा बायोग्राफी और सटायर भी मिक्स है.

 तो हो जाइये तैयार धारावाहिक के रूप में पढ़ने के लिए विश्वविद्यालय की उन क्लास के बारे में जिनमे लगभग ९५ प्रतिशत लड़कियां थी, हॉस्टल की मेस और उसका खाना, हॉस्टल के कॉमन रूम में दूरदर्शन पर चित्रहार और पिक्चर देखना तथा टेबल टेनिस खेलना टैगोर लाइब्रेरी में पढाई, , वो मोस्ट टैलेंटेड लड़कियां जिनकी प्रतिभा का डंका पूरी यूनिवर्सिटी में बजता था और आज वे देश विदेश में उच्च पदों पर सुशोभित हैं. वो सुपर डुपर फैशनेबुल लड़कियां जो खचाखच भरी क्लास में इम्पोर्टेड परफ्यूम्स से गार्निश्ड ब्रांडेड कपड़ों के कारण रूम फ्रेशनर का काम करती थीं और जिनकी चर्चा पूरे कैंपस में थी. बड़े बापों के बिगड़ैल रईस नवाबजादों की जो १०० सी. सी. बाइकों से कैंपस में एक छोर से दूसरे छोर तक बेवजह फर्राटा भरते थे और उन बेहद पढ़ाकू टाइप कूपमंडूक लड़कों की जिन्हें देश दुनिया से कोई मतलब ही नहीं था. उन प्रौढ़ हो चुके दादा टाइप के छात्रों की जो पिछले कई सालों से हॉस्टल में रिसर्च के नाम पर रूम हथियाये हुए थे और संपर्कों से ठेकेदारी भी करते थे जबकि पढाई लिखाई से कोसों दूर थे. उन छात्रों की जो नियमित तौर पर बरास्ता कैलाश हॉस्टल लंबी दूरी पैदल चलते हुए आई टी चौराहे घूमने जाते थे और उन छात्रों की जो नई फिल्म रिलीज होते ही फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने के बाद हॉस्टल के अन्य छात्रों को उसकी कहानी बताकर स्टार रेटिंग के साथ अपना जलवा गांठते थे. इसके अलावा और भी बहुत है इस पिटारे में............... बस थोड़ा सा इंतज़ार करिये……………………………. जारी……….
लगभग २८ साल बाद फिर से मिलना, सुखद अनुभूति

ये तो भला हो फेसबुक और व्हाट्सएप्प का जिसने एक नामुमकिन काम को मुमकिन बना दिया. लखनऊ विश्वविद्यालय में लोक प्रशासन में पोस्ट ग्रेजुएट की पढ़ाई का आखिरी साल अधिकांश सहपाठियों के लिए विश्वविद्यालय में भी आखिरी साल था और इसके बाद कुछ नौकरी पा जाने के कारण लखनऊ से बाहर चले गए और कुछ लखनऊ और आस पास नौकरी पाने या स्वयं का व्यवसाय करने के कारण लखनऊ में ही रह बस गए. १९८८-८९ के समय मोबाइल था नहीं इसलिए विश्वविद्यालय छोड़ने के बाद संयोगवश कभी कभार कहीं यात्रा पर आते जाते एयरपोर्ट या रेलवे स्टेशन पर अथवा किसी महोत्सव या मेले में परिवार के साथ अचानक कुछ क्षण के लिए शायद कुछ मित्रों से मुलाकात भी हुई परंतु समय की आपाधापी और व्यस्तता के चलते फिर संपर्क नहीं हो पाया. हाँ यह जरूर कि पिछले पांच छह सालों से फेसबुक पर मौजूद होने से बहुत से सहपाठी फेसबुक फ्रेंड की लिस्ट में आ गए जिससे उनके बारे में निरंतर जानकारी मिलती रहती थी और पुरानी यादें भी ताज़ा हो जाती थी. धन्यवाद अपने प्रिय सहपाठी और मित्र अजय तिवारी का जिन्होंने विश्वविद्यालय में साथ पढ़ चुके मित्रों का व्हाट्सएप्प पर एक ग्रुप बनाकर सबको एक साथ जोड़ डाला. फिर क्या था सबने २८ सालों बाद दिल्ली या लखनऊ में एक साथ फिर से मिलने का प्लान बनाया. आखिरकार सबकी सहमति और सुविधा को देखते हुए एक दो महीने पहले ही १३ अगस्त २०१६ की तारीख मुक़र्रर हुई पहले गोल्फ क्लब में मिलने का प्रोग्राम हुआ परंतु अधिकतम संख्या १०-१२ होने के कारण मित्र समीर माथुर ने गोमती नगर स्थित अपने आवास पर ही रात्रि डिनर की मेज़बानी की पेशकश कर दी जो कि फाइनल भी हो गया. विश्वविद्यालय परिसर स्थित लोक प्रशासन विभाग में अपने पुराने सहपाठियों के साथ पुनः जाने की इच्छा को देखते हुए यह तय हुआ कि १३ अगस्त को पहले ३.३० बजे विश्वविद्यालय मे सहपाठियों की मुलाकात होगी. मैं अपने आवास से विश्वविद्यालय रास्ते में जाम के चलते लगभग ३.५० बजे विश्वविद्यालय पहुंचा. अजय जलंधर से आ रहे थे, फ़ोन किया तो बताया कि वे एयरपोर्ट से सीधे विश्वविद्यालय पहुँच रहे हैं, रितु ऑस्ट्रेलिया से दिल्ली आने के बाद सुबह ही फ्लाइट से लखनऊ आ चुकी थीं और अपनी मित्र नीलम के घर जो कि विश्वविद्यालय के बिल्कुल पास था वहां ठहरी थीं. भूपेंद्र भी एक दिन पहले ही दिल्ली से आ चुके थे और समीर तो लखनऊ में ही थे. मेरे विश्वविद्यालय पहुँचने के ५ मिनट बाद ही अजय भी पहुँच गए लगभग २८ सालों बाद आमने सामने गर्मजोशी से गले मिले खूब हँसे खिलखिलाये. अजय बिलकुल वैसे जैसे २८ साल पहले थे, थोड़ी देर में ही रितु भी अपनी मित्र नीलम के साथ आ पहुंची, दोनों ही पढ़ाई के दौरान हॉस्टल में साथ रही गहरी मित्रता जो कि पिछले ३०-३२ सालों से अब भी बरक़रार. रितु शादी के बाद अपने पति और बच्चों के साथ ऑस्ट्रेलिया में ही बस गयी हैं और वहीँ जॉब करती हैं जबकि उनकी मित्र नीलम का लखनऊ में ही मायका होने के कारण अपने माता पिता से मिलने और उनकी देखभाल के लिए अक्सर लखनऊ आना जाना लगा रहता है. रितु के ऑस्ट्रेलिया से लखनऊ आने के कारण नीलम ने भी अपने लखनऊ प्रवास में बढ़ोत्तरी कर दी. रितु और नीलम दोनों २८ साल बाद भी बिलकुल वैसे की वैसे, बेहद शालीन, सौंदर्य से परिपूर्ण और प्रसन्नचित्त हंसती मुस्कराती. दोनों से कुशलक्षेम पूछा तथा घर परिवार और बच्चों के विषय में बात हुई. फिर समीर और थोड़ी देर में ही भूपेंद्र भी पहुँच गए. सब आपस में गर्मजोशी से मिले, फिर सब वहां गए जहाँ क्लास लगती थी, खूब बात हुई, यादें ताज़ा हुई, फोटो खींचे गए. इसके बाद नीलम ने सबसे आग्रह किया कि सभी विश्वविद्यालय के सामने ही स्थित उनके घर पर चलकर चाय पी लें. अजय, समीर, भूपेंद्र, रितु और हम सभी नीलम के घर पहुंचे. घर पर नीलम के पापा और मम्मी से भी २८ सालों के बाद मुलाकात हुई और उनका आशीर्वाद प्राप्त हुआ. नीलम के पापा अतिशय सज्जन पुरुष और उच्च पदस्थ सेवानिवृत्त अधिकारी और मम्मी भी एक श्रेष्ठ कुलीन महिला. नीलम ने अपने घर पर बेहद स्वादिष्ट स्नैक्स और जायकेदार चाय के साथ हम सबकी मेज़बानी की. इसके बाद रात्रि में समीर के घर डिनर पर मिलने का प्रोग्राम, हम अपने मित्र अरविन्द के साथ रात ८.१५ बजे समीर के घर पहुंचे अजय, भूपेंद्र, रितु, नीलम, विनोद पहले ही आ चुके थे. सबको सरपराइज देते हुए युसूफ भी दुबई से वहां पहुँच चुके थे. कुछ देर बाद विजय कीर्ति और ज्ञानेंद्र भी आ गए. फिर क्या था विश्वविद्यालय के ज़माने की खूब बातें हुई, यादें ताज़ा की गयी, ठहाके लगे. समीर ने अपनी धर्मपत्नी तथा दोनों प्रिय बेटियों के साथ खाने पीने का पंचतारा इंतज़ाम कर रखा था और जिसका सबने खूब लुत्फ़ उठाया. फोटो खींचे गए और ग्रुप में शेयर हुए जो लोग नहीं आ पाए उनका सन्देश आया कि किन कारणों से वे इस यादगार प्रोग्राम में शामिल नहीं हो पाए. और अगले साल इस तरह का प्रोग्राम फिर करने का प्लान बनाकर सबने आपस में विदा लिया.
बहुत बहुत धन्यवाद रितु और युसूफ को जो इतनी दूर से आकर शामिल हुए, अजय को जिनका यह प्रयास सफल रहा. और आखिर में एक बार पुनः समीर और उनके परिवार को इस शानदार आयोजन के लिए बहुत बधाई और धन्यवाद।