लखनऊ विश्वविद्यालय संस्मरण पार्ट 2
1982-83 मे लखनऊ विश्वविद्यालय में बी.
ए. प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया तो अपनी पसंद के ही अनुसार एडमिशन मिला मैथ्स, सोशल
वर्क और साइकोलॉजी सब्जेक्ट्स में तथा साल भर की कुल फीस भरनी पड़ी रु 163 मात्र. एडमिशन मिलने के बाद हॉस्टल के लिए भी फॉर्म भर
दिया तब आर्ट्स विषय के अंडरग्रेजुएट छात्रों के लिए मात्र हबीबुल्लाह छात्रावास ही
था जो की डबल सीटेड था. इसके अलावा बीरबल साहनी तथा गोल्डन जुबिली ऐसे हॉस्टल थे जिनमे
रिसर्च स्कॉलर्स के अलावा कुछ मेधावी छात्रों को भी रूम अलॉट किया जाता था चाहे वे
किसी भी क्लास के क्यों न हो. ये दोनो हॉस्टल नए बने थे और सिंगल सीटेड भी थे तथा मेन
कैंपस से भी नज़दीक थे. विश्वविद्यालय में प्रवेश के पहले ही वर्ष सिंगल सीटेड हॉस्टल
पाना किसी गौरव से कम नहीं था. मैंने बीरबल
साहनी हॉस्टल में रूम अलॉटमेंट के लिए एप्लीकेशन डाल दी तभी अचानक रजिस्ट्रार ऑफिस
के पास हमारे स्कूल के सीनियर छात्र भाई सुरेश बहादुर जी मिल गए और बताया की वे बीरबल
साहनी हॉस्टल में ही रहते हैं और उनका एम.ए. इकोनॉमिक्स का फाइनल ईयर है तथा उनके हॉस्टल
में एक छात्र नौकरी पा जाने के कारण अपना रूम एक दो दिन में खाली कर देगा जिसे वे प्रोवोस्ट
से कहकर मुझे अलॉट करवा देंगे. हालाँकि मैं बहुत मेधावी छात्र तो नहीं था परंतु हाई
स्कूल और इंटरमीडिएट में फर्स्ट डिवीज़न होने अच्छे नंबर होने के कारण मेधावी छात्रों में मैं भी शामिल
हो गया और बीरबल साहनी हॉस्टल में एक सिंगल सीटेड रूम पाने में सफल हो गया. बीरबल साहनी
हॉस्टल के मेस में उस समय एक वक्त का खाना मात्र दो रुपये में मिलता था जिसमे अनगिनत
चपाती के साथ बढ़िया दाल चावल और सब्जी भी. हफ्ते में दो बार यानी बुधवार शाम और रविवार
दोपहर स्पेशल पूरी कचौरी सब्जी और खीर या कस्टर्ड, फ्रूट क्रीम भी. क्या दिन थे आज
सपना लगता है. यह इकलौता हॉस्टल डालीगंज और बाबूगंज से कैंपस आने वाली सड़क के बिलकुल
किनारे पड़ता था. संयोग से मेरे रूम की खिड़की भी सड़क की तरफ ही खुलती थी जिससे सड़क पर
आने जाने वाले बहुत ही नज़दीक व साफ़ दिखाई देते थे. इस सड़क से डालीगंज और बाबूगंज से
कैंपस आने जाने वाली बहुत सारी लड़कियां रोज़ सुबह से सायं तक गुज़रती थीं. डालीगंज और
बाबूगंज इलाके से आने वाली लड़कियां अधिकतर सामान्य निम्न मध्य और मध्य वर्ग की ही होती
थी और उनका पहनावा भी उसी तरह होता था. अब लड़कों के हॉस्टल के सामने से लड़कियां गुज़रें
और लड़के कोई कमेन्ट्स ना करें ऐसा भला कैसे हो सकता था. फिर क्या था, ऐ नीली दुपट्टे
वाली तुम पर लाल दुपट्टा जमेगा या वाह क्या चाल है, क्या नाम है या आज बिजली गिरकर
ही रहेगी जैसे कमेन्ट्स पास होते थे. हाँ लड़के ये कमेन्ट्स केवल मनोरंजन के लिए अपने
कमरे की खिड़कियों से ही पास करते थे और इसका ख्याल रखते थे की उनकी पहचान लड़कियों के
सामने कभी उजागर ना हो और लड़कियां भी इन सब की आदी हो चुकी थीं बिना किसी प्रतिक्रया
के सीधे कैंपस की तरफ बढ़ जाती थीं. हाँ उस ज़माने में जीन्स पहने हुए यदि कोई लड़की हॉस्टल
के सामने से गुजर गयी तो समझो उसकी शामत. शामत बोले तो बहुत बहुत कमेन्ट्स क्योंकि
उस ज़माने में जीन्स पहनने का फैशन शुरू हुए बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ था और जीन्स पहनने
वाली लड़कियों की इमेज एक मॉड एवं बिंदास की मानी जाती थी. वैसे मैं जीन्स पहनने का
विरोधी नहीं हूँ परंतु मैंने कभी जीन्स नहीं पहना और न ही कभी पहनने का विचार है, मुझे
तो ट्रॉउज़र्स ही पसंद है. हॉस्टल में रहने के दौरान मैंने देखा कई लड़के जीन्स पहनते
हैं पर जब देखा कि हॉस्टल के सर्वेन्ट्स, कुछ रिक्शेवाले और आस पास के चाय की दुकानों
और ढाबों के छोटू और पप्पू भी जीन्स पहनकर घूम रहे हैं तो जीन्स पहनने का विचार सदा
के लिए त्याग दिया. अब मेरा निजी विचार जिससे हो सकता है कि जीन्स पहनने वाले कुछ हमारे
मित्र नाराज़ हो सकते हैं कि जीन्स लड़कों पर सूट नहीं करती बल्कि हमारे ख्याल से यह
लड़कियों पर ही ज्यादा फबती है क्योंकि कुदरत ने उनको ऐसी शारीरिक संरचना से नवाजा है.
वे जीन्स पहनकर चुस्त और स्मार्ट लगती हैं. अब हमें यह नहीं पता कि जीन्स पहनने वाले
लड़कों को लड़कियां कैसे और किन नज़रों से देखती हैं.
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